नेत्रहीनों का नाम आते ही लोगों के दिमाग़ में जो चित्र अंकित होता है, वह है "सहानुभूति और दया "। आमतौर पर लोग इनकी इसी सहानुभूति की ज़िन्दगी से परिचित हैं । नेत्रहीनों के बारे में अक्सर लोग यही सोचते है की इनकी ज़िन्दगी बड़ी कठिन है , नेत्र ना होने के कारण यह कैसे अपना काम करते होंगे। छोटी-से छोटी चीज़ के लिए हर पल ज़िन्दगी से और अपने आप से ज़ंग करते होंगे।यह इनकी ज़िन्दगी का एक पहलु है , दुसरे पहलु का सच कुछ और है।
मैं आपको जिस लड़की से परिचित करा रही हूँ , यह उत्तर-प्रदेश के बलिया जिले से हैं। इनका नाम चंदा सागर है। साढ़े तीन साल की उम्र में इन्होंने बीमारी में अपनी आखें खो दी। ज़िन्दगी में अनेक कठिनाईयों का सामना करते हुए , आज ये दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रतिष्ठित कॉलेज मिरांडा हाउस में प्राध्यापिका पद पर हैं। इनके शौक फ़िल्म देखना , घूमना , नए-नए पकवान बनाना और सुडोको खेलना एक आम व्यक्ति की तरह ही हैं।
यह समाज से सहानुभूति की नहीं , सहारे की उम्मीद करती हैं। यह महिलाओं की जागरूकता के प्रति विशेष रुख रखती हैं , जिसका उदाहरण है इनकी एक कविता 'परिंदे उड़ना चाहते हैं । जिसकी कुछ पक्तियां इस प्रकार हैं .....
छोड़ दो आजाद हम परिंदों को ,
हम जी खोलकर आकाश में उड़ना चाहते हैं।
हम नहीं ओढेंगे इस समाज की ,
सडी-गली हुई मान्यताओं को।
इन अर्थहीन परम्पराओं को ,
मत लादो हम पर व्यर्थ में।
अब बहुत देर हो चुकी है ,
हम समय के संग पंख लगाकर उड़ना चाहते हैं ।

पढाना मेरा काम और शौक दोनों है



फ़िल्म मुझे थियेटर में ही देखना पसंद है

काम करने का आसान तरीका कंप्यूटर


आज की ज़रूरत मोबाइल फोन



घूमना मेरा शौक
फोटो फीचर : गार्गी निम